जमशेदपुरः पूर्वी सिंहभूम जिले की घाटशिला विधानसभा सीट पर उपचुनाव का मुकाबला इस बार त्रिकोणीय हो गया है। सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ जयराम कुमार महतो की झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा (जेएलकेएम) भी मैदान में उतर गई है। तीनों दलों ने अपने-अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है, जिससे चुनावी जंग दिलचस्प हो गई है।
यह उपचुनाव झामुमो विधायक और राज्य के पूर्व शिक्षा मंत्री रामदास सोरेन के निधन के कारण हो रहा है। चुनाव आयोग ने 11 नवंबर को मतदान और 14 नवंबर को मतगणना की तारीख तय की है।
इस बार मुकाबला दो प्रभावशाली राजनीतिक परिवारों की नई पीढ़ी के बीच है। झामुमो ने दिवंगत विधायक रामदास सोरेन के पुत्र सोमेश सोरेन को टिकट दिया है, जबकि भाजपा ने एक बार फिर पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन के पुत्र बाबूलाल सोरेन पर भरोसा जताया है। पिछली बार 2024 के विधानसभा चुनाव में रामदास सोरेन ने बाबूलाल सोरेन को करीब 22,000 वोटों से हराया था। अब दोनों के बेटे मैदान में उतरकर अपने-अपने परिवार की राजनीतिक साख को बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं।
वहीं, जेएलकेएम ने रामदास मुर्मू को उम्मीदवार बनाकर मुकाबले को और रोचक बना दिया है। रामदास मुर्मू ने 2024 के विधानसभा चुनाव में भी घाटशिला से उम्मीदवार के रूप में करीब 8,000 वोट हासिल किए थे और तीसरे स्थान पर रहे थे। माना जाता है कि उस चुनाव में उनके प्रदर्शन ने भाजपा को नुकसान पहुंचाया था।
जेएलकेएम प्रमुख जयराम महतो का कहना है कि उनकी पार्टी इस बार भी पूरे दमखम से चुनाव लड़ेगी। पार्टी ने बीते चुनावों में बोकारो, रामगढ़, गोमिया, धनबाद और गिरिडीह जैसी कई सीटों पर प्रमुख दलों के समीकरणों को प्रभावित किया था।
रामदास मुर्मू ने इस चुनाव में “स्थानीय बनाम बाहरी” का मुद्दा उठाया है। उनका कहना है कि घाटशिला को ऐसे प्रतिनिधि की जरूरत है जो यहां के लोगों की समस्याओं और उम्मीदों को समझ सके। मुर्मू घाटशिला अनुमंडल के ही रहने वाले हैं और यहां एक कोचिंग सेंटर संचालित करते हैं। वे भौतिकी में स्नातकोत्तर और बीएड डिग्रीधारी हैं।
इसके विपरीत भाजपा उम्मीदवार बाबूलाल सोरेन सरायकेला-खरसावां जिले से हैं, जबकि झामुमो उम्मीदवार सोमेश सोरेन जमशेदपुर के निवासी बताए जा रहे हैं। इस लिहाज से स्थानीयता का मुद्दा चुनावी बहस के केंद्र में आ गया है।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि घाटशिला उपचुनाव न केवल दो प्रमुख सियासी परिवारों की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है, बल्कि यह उपचुनाव यह भी तय करेगा कि ग्रामीण और आदिवासी मतदाता किस दिशा में झुकते हैं।
