लक्ष्मण-रेखा
सूर्य सर पर आ चुका था ,अर्थात यात्रा आरंभ किये हुए पाँच घंटे हो गए थे । किसी मुख्य स्टैंड पर हमारी बस हिचकोले खाती हुई रुकी थी ।भूख से व्याकुल सारे लोग मिनटों में बस से बाहर हो गए थे और अब सामने वाले ढाबे में समा रहे थे । ड्राइवर बाहर ही खड़ा पान फेंकने के बाद अब कुल्लिया कर रहा था ।ढाबे में तली जा रही मछली की दुर्गंध मुझे बेचैन किए दे रहीथी ।मुझे शायद भूख नहीं लगी थी क्योंकि मैं अपनी सीट पर ही बैठा रह गया था ।‘गति-सीमा ५० किलोमीटर’ आगे काँच के ऊपर कोने में लिखी थी यह पंक्ति ! क्या कल्पना की उड़ान की कोई गति-सीमा नहीं होती ?आँखें मूँदकर एक सीमा निर्धारित करना चाहता था,किन्तु वाह री कल्पना की उड़ान।
ब तक तो मैं उसके ज़रिये अपने गांव जा पहुँचा था और घर पहुंचकर मैं अपनी चाची के पैर छू रहा था ,जो चीनी घुली आवाज़ में कह रही थी , तू तो काफ़ी बड़ा हो गया है रे , सामान पटककर भागा था मैं अपने लंगोटीया मित्रों से मिलने के लिए , और सामने अचानक मोनू आ पड़ी थी ।अरे मोनू भी तो अब काफ़ी बड़ी हो गयी होगी — तेज गति से दौड़ता कल्प अश्व अचानक की ठिठक पड़ा था और मैं सोचने लगा था लड़कियों की चढ़ती उम्र के लिए 5 वर्ष का अंतराल कुछ कम नहीं होता है वह भी गाँव की लड़की , शायद शादी भी हो गई हो उसकी और फिर शायद वह मुझे पहचाने भी नहीं ।ऐसा सोचते ही मेरा मन डूबने सा लगा ।पुनः मेरी कल्पना गांवों पहुँच चुकी थी और मोनू की आँखों में झांक रही थी ।मैने महसूस किया कि ना जाने उन आँखों की चंचलता अब कहाँ खो गई थी ,लेकिन फिर भी वहाँ अपने लिए अपेक्षित अपनापन का भाव ज्यों का त्यों पाकर आश्वस्त हुआ था मैं ।तभी मेरी मुंडी आँखों में मैं डूबता चला जा रहा था कि तभी मेरी मूँदी आंखें खुल गई ।बगल में झपकी लेता बूड़ा मेरे कंधे पर आ गिरा था उस बूढ़े को कंधे से झटक मैंने खिड़की से बाहर नज़रें दौड़ाई —दिन कुछ ढल चुका था ।शायद ढाई-तीन घंटे की यात्रा और रह गई होगी । गाँव पहुँचने की मेरी ललक अब मोनू से मिलने की बेचैनी में सिमट गई थी ।मोनू पड़ोस में रहने वाले वर्मा-दम्पति की अकेली संतान थी ।चंचल इतनी की किसी से भी झूठमूठ लड़ पढ़ना उसके शौख में शामिल था ।उसके ठीक विपरीत था मैं मितभाषी और एकान्त-प्रेमी ।चाची से मिली उल्लाहनाओं , अपेक्षाओं से कुण्ठित होकर मै किसी एकान्त में जा बैठा था तब पीछे से कोई अनायास ही मेरी आंखें बंद कर देती मैं अनायास ही बोल पड़ता ,मोनू और वह खिलखिला उठती और अनायास ही सामने आ बनावटी गंभीरता से पूछती ,” कहिए महाशय जी किस गंभीर विषय की बखिया ऊधेड़ रहे हैं “? मैं बुझा -बुझा सा इस प्रश्न से टपकते ब्यंग को उसकी आँखों में ढूँढना चाहता ।वह फिर मुस्कुरा देती ।मगर उसकी यह मुस्कुराहट ,उसके पहले की खिलखिलाहट —उन्मुक्त ,उच्श्रृंखल खिलखिलाहट से सर्वथा भिन्न हुआ करती थी – ऐसा जैसे की रोते होठों को मुस्कुराने पर मजबूर कर दिया गया हो ,या ये मुस्कुराते होठ कुछ ही क्षणों में रो पड़ेंगे ।उसकी आँखों में स्नेह के असंख्य दीप जल उठते और उन दीपो की लौ में मेरी सारी कुंठाएँ जलकर नष्ट हो जाया करती।
समय बीतता चला गया था ।मैं मैट्रिक की परीक्षा दे परीक्षाफल का इंतज़ार कर रहा था ।वह भी दसवीं कक्षा में पहुँच गई थी ।तभी हमारे उसके बीच के स्नेह-संबंध पर कीचड़ उछाले जाने लगे थे।लोगों की आँखों में तैरती ,संदेह की रेखाओं को मैंने भी देखा था और उसने भी ।तब मैंने मोनू की आँखों में झाँका था -वहाँ उन डिब्बों की उज्ज्वल लौ काँप तो नहीं रही है ? ऐसा नहीं था ,और मुझे जैसे नया जीवन मिला था ।
फिर एक दिन परेशान -सी मोनू ने भर्राई आवाज़ में कहा था —“अनि, माँ ने मुझे किसी भी लड़के से बातें करने को मना किया है “।मैं बुदबुदाया था – “किसी भी लड़के से “! इशारा स्पष्ट था और उसके संदर्भ में पहली बार मुझे यह सोचना पड़ा कि वह “वह” नहीं है जो मैं हूँ और मैं वह नहीं हूँ जो वह है ।लोगों ने इस अंतर को एक अदृश्य किंतु सुस्पष्ट “लक्ष्मण-रेखा “खींच कर स्पष्ट कर दिया था –
मुझे रावण-सा समझा गया है ,सोचकर मुस्कुराया था मैं ! तभी मोनू ने कहा था -घबराना मत अनि ,मैं फिर भी तुम से मिला करूँगी”।मैंने स्पष्ट देखा था कि उसकी आँखों में जल रहे असंख्य देपों की उज्ज्वलता धीरे-धीरे कालिमा में बदलती जा रही थी। वह वह नहीं है ,जो मैं हूँ ।मैंने उसे ऊपर से नीचे तक घूरा था -सचमुच वह वैसा नहीं है ,तब पहली बार मुझे यह अहसास हुआ था कि उसके पास “भिन्न कुछ “है और एक विचित्र -सी उत्तेजना ने जैसे मेरी नसों को चटखा दिया था ।तभी एक झटका -सा लगा था मेरे विवेक को-अरे ,यह क्या !मैं तो सचमुच रावण हो गया हूँ ।
अचानक एक भारी आवाज़ ने मेरे विचारों की श्रृंखला को छिन्न-भिन्न कर डाली -क्यों मियाँ ,उतरना नहीं है क्या ? मैंने देखा ,मेरी मंज़िल आ गयी है और मेरे भाई बाहर से मुझे आवाज दे रहे हैं ।मैं झेंप गया और शीघ्रता से एक हाथ में सूटकेस लटकाए उनके साथ हो लिया ।रास्ते भर एक ही प्रश्न मुझे परेशान करता रहा –
— “लक्ष्मण-रेखा” का खींचा जाना कितना उचित था ? मेरे और उसके बीच समाज ने जो दीवारे खिचीं थी क्या वो मेरे चरित्र पर एक सवालिया निशान नहीं था? । जब कानून ने हमारे बीच कोई फर्क नहीं किया तो फिर हम क्यौ?
शिक्षा: आज का समाज और उसमे फैली कुरीतियाँ हमें उस लक्ष्मण-रेखा की याद दिलाती है जिसे पार करने पर माँ सीता को रावण जैसे राक्षस का सामना करना पड़ा था। कहने को तो हम आजाद समाज में सांसे ले रहे हैं पर क्या सही मायने में जी पा रहे हैं। लोगों को बेहतर जीवन जीने के लिए एक स्वस्थ, सुरक्षित एवम् खुले पर्यावरण की जरूरत होती है , लक्ष्मण-रेखा की नहीं ! हमें कबतक लक्ष्मण-रेखा के दायरे में रहना पड़ेगा ? देश को आजाद हुए तो अठहत्तर (७८) साल हो चुके पर नारी-समाज कबतक डॉक्टर, आरुषि, निर्भया जैसी निर्दोषों की बलि चढ़ाता रहेगा।
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Very well written.