बिहार का विधानसभा चुनाव इस बार विकास, जातीय समीकरण और भरोसे की त्रिकोणीय जंग बन चुका है। एनडीए जहां ‘डबल इंजन सरकार’ के कामों को अपनी सबसे बड़ी पूंजी बता रहा है, वहीं महागठबंधन बेरोजगारी, पलायन और महंगाई को बड़ा मुद्दा बनाकर मैदान में है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जोड़ी पर एनडीए भरोसा जता रहा है। भाजपा अपने संगठन, हिंदुत्व की अपील और केंद्र की योजनाओं—उज्ज्वला, आयुष्मान भारत, किसान सम्मान निधि, पेंशन व बिजली सब्सिडी—को जनता के सामने पेश कर रही है।
जद(यू) नीतीश के ‘लव-कुश’ (कुर्मी-कोइरी), अति पिछड़े और महादलित वोट बैंक पर दांव लगा रही है।
लोजपा (रामविलास) और हम(से) दलित वोटों के सहारे गठबंधन को मजबूती दे रहे हैं।
एनडीए ने ब्याज मुक्त छात्र ऋण, कौशल विकास, पेंशन और ‘औद्योगिक निवेश पैकेज 2025’ जैसे वादों के साथ चुनावी एजेंडा तय किया है।
वहीं, तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन युवाओं को रोजगार और शिक्षा के मुद्दों पर लामबंद करने की कोशिश में है। राजद का ‘अति पिछड़ा न्याय संकल्प’—आरक्षण बढ़ाने, सरकारी ठेकों में हिस्सेदारी और नियामक निकाय की स्थापना—के जरिये पिछड़े वर्गों को साधने का प्रयास है।
कांग्रेस राहुल गांधी के अभियानों के सहारे बेरोजगारी और शिक्षा पर फोकस कर रही है, हालांकि संगठनात्मक कमजोरी और सीमित पहुंच उसके लिए चुनौती है। वाम दल और वीआईपी सामाजिक न्याय और समानता के मुद्दों को उठाकर अपनी जमीन तलाश रहे हैं।
गठबंधन में नेतृत्व और सीट बंटवारे को लेकर अस्पष्टता बनी हुई है। तेजस्वी को सर्वमान्य चेहरा बनाने पर कांग्रेस की अनिच्छा और प्रशांत किशोर के जन सुराज अभियान से संभावित वोट कटाव की आशंका भी महागठबंधन के लिए सिरदर्द बनी हुई है।
राजद को ‘जंगलराज’ और भ्रष्टाचार के पुराने आरोपों से उबरने की चुनौती है, जबकि एनडीए नीतीश के सुशासन और मोदी की लोकप्रियता को लेकर आत्मविश्वास में दिख रहा है।
कुल मिलाकर, यह चुनाव सिर्फ़ सत्ता का संघर्ष नहीं, बल्कि बिहार के विकास, रोज़गार और विश्वास के रास्ते का इम्तिहान भी है। आने वाले नतीजे तय करेंगे कि राज्य की राजनीति किस दिशा में आगे बढ़ेगी।