लोस चुनाव : राजनीति के बदलते दौर में बदल गए ‘चुनावी नारे’

सीतापुर। एक तस्वीर जिस तरह से हजार शब्दों पर भारी होती है, उसी तहर छोटे-छोटे चुनावी नारे, लंबे भाषणों पर भारी पड़ते हैं। बीते चुनावों में कई नारों में मतदाताओं को इस कदर लुभाया कि चुनाव के नतीते बेहद चौंकाने वाले और अप्रत्याशित साबित हुए हैं। इस बार के लोकसभा चुनाव में भी राजनीतिक पार्टियां नारों के माध्यम से मतदाताओं को रिझाने में लगी हुई हैं।

इस बार सत्तारूढ़ भाजपा अब की बार 400 पार, मोदी की गारंटी और फिर एक बार मोदी सरकार जैसे नारों के साथ चुनाव मैदान में हैं, तो वहीं सपा-कांग्रेस गठबंधन का नारा, होगा पीडीए का नाम, अबकी एकजुट मतदान है। कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ, तो आम आदमी पार्टी ने इस बार जेल का जवाब वोट से नारा दिया है। वही बहुजन समाज पार्टी के समर्थक चुनाव प्रचार में, मायावती काशीराम, बहुजन का होगा उत्थान, आदि नारे लगाकर मतदाता को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास कर रहे हैं।

कभी ऐसे हुआ करते थे चुनावी नारे

राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे और सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे, राम मंदिर आंदोलन के दौर में भाजपा का यह नारा देश भर में गांव-गांव और गली-गली गूंजा। इसके अलावा अबकी बारी अटल बिहारी, जन-जन का संकल्प, परिवर्तन एक विकल्प और गली-गली में मचा है शोर, जनता चली भाजपा की ओर, इन नारों ने भाजपा को लोकसभा और विधान सभा चुनावों में जीत कराने में अपनी भूमिका निभाई है। जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है। जीत की चाभी, डिंपल भाभी। यूपी की मजबूरी है,अखिलेश यादव जरूरी है। समाजवादी पार्टी के यह नारे चुनावों में लोगों की जुबान पर खूब चढ़े। ‘बेटियों को मुस्कुराने दो, बहन जी को आने दो’ बसपा के इस नारे ने महिलाओं को खासा आकर्षित किया। इसके अलावा बसपा का नारा डर से नहीं हक से वोट दो, बेइमानों को चोट दो और चढ़ गुंडों की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर भी काफी चर्चित हुआ।

ऐसे नारे जिनसे चुनाव गए जीते

1965: जय जवान, जय किसान (कांग्रेस)

1967: समाजवादियों ने बांधी गांठ, पिछड़े पावै सौ में साठ (सोशलिस्ट पार्टी)

1971: गरीबी हटाओ (कांग्रेस)

1975-1977: सिंहासन खाली करो कि जनता आती है (सोशलिस्ट पार्टी/जनता दल)

1978: एक शेरनी सौ लंगूर, चिकमंगलूर, चिकमंगलूर (कांग्रेस)

1984: जब तक सूरज चांद रहेगा, इंदिरा तेरा नाम रहेगा (कांग्रेस)

1989: राजा नही फकीर है, जनता की तकदीर (कांग्रेस)

1989: सेना खून बहाती है, सरकार कमीशन खाती है (जनता दल/बीजेपी)

1993: मिले मुलायम काशींराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम

1996: मंगल भवन अमंगल हारी, आ रहे हैं अटल बिहारी

अतीत में यह नारे भी हुए लोकप्रिय

– इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं

– जली झोपड़ी भागे बैल, यह देखो दीपक का खेल

– स्वर्ग से नेहरू रहे पुकार, अबकी बिटिया जइयो हार

– इंदिरा लाओ देश बचाओ-आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा को लाएंगे

ये देखो इंदिरा का खेल, खा गईं शक्कर पी गईं तेल

– सोच ईमानदार, काम दमदार,

– फिर एक बार भाजपा सरकार,

– सौ में साठ हमारा है, चालीस में बंटवारा है, उसमें भी हमारा है

– यूपी का ये जनादेश, आ रहे हैं अखिलेश

– मजबूर नहीं, मजबूत सरकार

फिलहाल 2024 के चुनाव में अतीत के नारे गायब हैं। सभी राजनीतिक दल वर्तमान में अपने चुनावी नारों से मतदाताओं व लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने का काम कर रहे हैं। अब देखना है कि लोकसभा चुनाव में कौन से नारे मतदाताओं को प्रभावित करेंगे और उनका वोट किस करवट बैठेगा। इसके लिए सभी को 04 जून का इंतजार रहेगा।

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